गांधी जी का धर्म कितना संप्रभु और कल्याणकारी था, यह गांधी जी के अनूठे भजन वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे…. ही पता चलता है. यह बापू का प्रिय भजन था, जिसकी रचना 15वीं शताब्दी के संत नरसी मेहता ने की थी.
गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में कहा था कि, धर्म के बिना राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती. हालांकि बापू यह भी अच्छे से जानते थे कि भारत जैसा देश जहां दर्जनों धर्म के लोग रहते हैं वहां, धर्म के साथ राजनीति करना कितना मुश्किल हो सकता है. इसलिए उनके लिए धर्म ऐसा था, जिससे लोगों का कल्याण हो.
महाभारत के श्लोक अहिंसा परमो धर्मः को अपनाते हुए महात्मा गांधी ने भी दुनियाभर में अहिंसा का ज्ञान दिया. लेकिन गांधी जी का धर्म केवल मस्जिद, मंदिर या गुरुद्वारा तक ही सिमट कर नहीं रहा, बल्कि उनका धर्म नैतिकता और मानवता पर भी आधारित था.
महात्मा गांधी और धर्म
गांधी जी ने अपने जीवन में धर्म को बहुत महत्व दिया. साथ ही धर्मों को लेकर उनके कई विचार भी थे. वे मानते थे कि धर्म और नैतिकता एक दूसरे के समानार्थी हैं या एक दूसरे से जुड़े हैं. वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे और धर्म की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्हें धर्म के साथ ही धार्मिक पुस्तकों और ग्रंथों से भी बहुत लगाव था. वे न सिर्फ गीता, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब और बाइबल जैसी धार्मिक किताबें पढ़ा करते थे बल्कि इन सब से काफी प्रभावित भी थे.
महात्मा गांधी ने 16 जनवरी 1918 को एक पत्र में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद (maulana abul kalam azad) को लिखा था कि- धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्ण नहीं. दरअसल मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और गांधी के बीच बहुत गहरा रिश्ता था. आजाद जी महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित थे. दोनों सालों से एक दूसरे को जानते थे, लेकिन 1920 को दिल्ली में हकीम अजमल खान के घर उनकी पहली मुलाकात हुई.